Manish S.
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मौन रहना सीख रहा हूं। पर सुनता हूं। चुपचाप सुनते रहना चाहता हूं। "सुनना" ध्यान का ही एक पर्याय है। एक और भी महत्वपूर्ण बात: क्रोध, अहंकार, दूसरों की निंदा, अपनी प्रशंसा सुनते समय, दुख के समय, अज्ञानता और ध्यान के समय मौन रखना आवश्यक है। यह अब समझ में आने लगा है। रामधारी सिंह दिनकर जी की एक कविता, जैसे लगता है उन्होंने मेरे लिए ही लिखा है - किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं? बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता प्रलय की ज्वाला लिए हूं, दीप बन कैसे जलूं मैं? जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की एक प्रतिमा में जहां विश्वास की हर सांस अटकी चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूं अभी तो सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूं मैं? अब ना तो मैं जीवन की प्रतिस्पर्धा में हूँ, ना ही मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी है।